शारदीय नवरात्रि महत्व एवं पूजा विधान : 17 अक्टूबर से शुरू हो रहा है नवरात्रि का महा पर्व।

शारदीय नवरात्रि महत्व एवं पूजा विधान : 

नवरात्रि का महत्व:

नवरात्रि के दौरान मां दुर्गा (Durga) के सभी नौ रूपों की पूजा की जाती है. पूरे वर्ष में चार नवरात्रि होती हैं, जिनमे दो गुप्त नवरात्रि होती हैं जो तांत्रिक सिद्धि के लिए मुख्यतः मानी जाती हैं एवं दो सामाजिक रूप से मनायी जाने वाली नवरात्रि होती हैं जिन्हें चैत्र के महीने में एवं शरद नवरात्रि के रूप में धूम धाम से मनाया जाता है।

इन पूरे नौ दिन, संसार में देवी शक्ति का संचार अत्यधिक रूप में रहता है एवं उनकी उपासना से साधक के जीवन में धन धान्य, सुख समृद्धि एवं परिवार में ख़ुशहाली सभी बड़ती है। शत्रुओं का हनन होता है एवं किसी भी प्रकार के नज़र दोष,भूत-प्रेत, तंत्र मंत्र का असर आदि से भी मुक्ति प्राप्त होती है।  इन पूरे नौ दिनो में माँ  के नौ स्वरूपों के पूजन का विधान है।

इस बार नवरात्रि की शुरुआत  चित्रा  नक्षत्र से हो रही है, उदय काल में यह योग होने से इस समय सावधानी बरतने की आवश्यकता है। चित्रा नक्षत्र में घट स्थापना को नहीं किया जाता है इसीलिए घट स्थपाना अभिजीत मुहूर्त में चित्रा नक्षत्र रहित समय पर करेंगे तो अधिक फल दायीं होगा।

इस बार नवरात्रि में बहुत सुंदर संयोग बन रहे हैं एवं लगभग हर दिन कोई ना कोई विशेष योग बन रहा है जो आपकी मनोकामना की पूर्ति के लिए विशेष कारक रहेगा। नवरात्रि किस शुरुआत में ही तारीख़ को सरवर्थसिद्धि योग रहेगा। कोई भी कार्य इस दिन शुरू करेंगे वह अत्यंत योगकारक स्तिथियाँ लेकर आएगा।

तंत्र साधना एवं मंत्र साधना के लिए यह नवरात्रि विशेषकर फल दायीं रहेगी।

कलश स्थापना मुहूर्त:

२०२० में शारदीय नवरात्रि १७ अक्टूबर से शुरू होगी। इस वर्ष, शनिवार को शुरू होने वाली नवरात्रि में देवी माँ घोड़े पर सवार होकर आएँगी एवं सिंह पर सवार होकर प्रस्थान करेंगी। 

नवरात्रि की प्रतिपदा तिथि में कलश स्थापन किया जाता है। कलश स्थापना करने से साधक माँ एवं समस्त देवी देवताओं का आवहन करते हैं एवं उन्हें साक्षी मान कर पूजन करते हैं। कलश के मुख में भगवान विष्णु, गले में रूद्र देव, मूल में ब्रह्मा जी का एवं मध्य में परा शक्ति माँ का वास होता है।

इस बात का अवश्य ध्यान रखें की चित्रा नक्षत्र और वैधृति योग होने पर कलश स्थापना नहीं करनी चाहिए।

17th October 2020 : शारदीय नवरात्रि की शुरुआत ,

प्रतिपदा तिथि प्रातः काल १:०० बजे से रात्रि ९:०८ मिनट तक 

घट स्थापना मुहूर्त : प्रताह काल 6:23 am – 10:12 am तक 

अभिजीत मुहूर्त्त: 11:43 am  – 12:29 pm

( ११:५२ – १२:२९ दोपहर में घट स्थापन का विशेष शुभ मुहूर्त, चित्रा नक्षत्र रहित) 

संधि पूजन : 24 अक्टूबर प्रातः  6:34 – 7: 22 am तक ( देवी चामुण्डा के हवन का मुहूर्त) 

नवरात्रि की पूजा-विधि:

नवरात्रि में प्रथम दिन, शुभ  मुहूर्त में कलश स्थापना की जाती है, किसी मिट्टी के पात्र में जौ बोए जाते हैं। नवग्रहों के साथ षोडश मात्रिकाओं एवं समस्त देवी देवताओं का आवहन कर पूजन किया जाता है। अखंड ज्योति जालायी जाती है एवं माँ  के नौ रूपों का विधिवत पूजन किया जाता है। यह समय साधना के लिए सर्वोत्तम रहता है। माँ के नवरं मंत्र का पूजन विशेषकर किया जाता है। दुर्गा सप्तशती का पाठ करें।

प्रतिपदा के दिन कलश स्थापना से पूर्व निम्न मंत्र का उच्चारण कर माँ  का आशीर्वाद लेकर नवरात्रि पूजन की शुरुआत करें :

 “ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते।।” 

नवरात्रियों के नौ दिनो में देवी के विभिन्न स्वरूप का पूजन निम्न रूप से किया जाता है।

निम्न लिखित अनुसार माँ को उनके निर्धारित दिन में भोग लगाएँ एवं उस दिन के रंग अनुसार वस्त्र पहने तो अधिक शुभट प्राप्त करेंगे। 

१७ अक्टूबर  :  प्रथम नवरात्रि  –  माँ शैलपुत्री पूजा ,      भोग – घी ,         ग्रह – चंद्रमा ;   रंग – नारंगी 
१८ अक्टूबर :  द्वितीय नवरात्र  –  माँ ब्रह्मचारिणी पूजा,  भोग – शक्कर,     ग्रह – मंगल ;    रंग – सफ़ेद 
१९  अक्टूबर   :  तृतीय नवरात्र  –  माँ चंद्रघंटा पूजा,        भोग – खीर,        ग्रह – शुक्र;      रंग – लाल २० अक्टूबर   :  चतुर्थ नवरात्र  –   माँ कुष्मांडा पूजा ,     भोग – मालपुआ    ग्रह – सूर्य ,   रंग – गहरा नीला 
२१ अक्टूबर   :  पंचमी नवरात्र  –  माँ स्कंदमाता पूजा     भोग – केले          ग्रह – बुद्ध       रंग – पीला 
२२ अक्टूबर   :  षष्ठी नवरात्र  –   माँ कात्यायनी पूजन    भोग – शहद        ग्रह – बृहस्पति    रंग – हरा 
२३ अक्टूबर  :  सप्तमी नवरात्र  –  माँ कालरात्रि पूजन     भोग – गुड़          ग्रह – शनी       रंग – स्लेटि 
२४ अक्टूबर  :  अष्टमी  नवरात्रि  -माँ महागौरी पूजन       भोग – नारियल;    ग्रह – राहू        रंग – बैंगनी।२५ अक्टूबर : नवमी नवरात्रि : माँ सिद्धिदात्री पूजा,   भोग – तिल/ अनार; ग्रह – केतु    रंग – पीकॉक हरा

२५ अक्टूबर : आयुध पूजन ( शस्त्र पूजन) एवं  विजय दशमी/ दशहरा , दुर्गा विसर्जन 

कई लोग अष्टमी को कन्या पूजन करते हैं एवं कई नवमी पर बाल कन्याओं की पूजा के साथ नवरात्रि का  उद्यापन करते हैं।  बाल कन्याओं की पूजा की जाती है और उन्हे हलवे, पूरी , गिफ़्ट आदि दे कर  नवरात्र व्रत का उद्यापन किया जाता है।

माँ को प्रसन्न करने के कुछ अदभुद मंत्र : 

माँ के नवार्ण मंत्र का जप करने से नाना प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलती है एवं समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होती है।

ॐ  ऐं ह्रिं क्लिं चामुण्डाय विच्चे इस मंत्र का रोज़ १०८ बार पाठ अवश्य करें।

दुर्गा सप्तशती का समपुट पाठ, साधक के लिए विशेष सफलता लेकर आता है। किसी भी प्रकार का रोग, दोष, हानि, काला जादू, भूत प्रेत आदि से परेशानी हो तो माँ का सम्पत पाठ करने से माँ अपने भक्तों की रक्षा करती हैं एवं उन्हें उनकी समस्याओं से मुक्ति दिलवाती हैं।

दुर्गा सप्तशती के तेरह अध्याय रोज़ पड़ने चाहिए, अगर वह सम्भव नहीं है तो माध्यम चरित्र अवश्य पड़ना चाहिए। यह भी सम्भव नहीं है तो माँ के बत्तीस नामवाली का पाठ करना चाहिए, यह भी सम्भव नहीं है तो सिद्ध कुंजिक स्त्रोत का पाठ करना बहुत शुभ होता है।

देवी माँ के किसी भी स्वरूप का स्मरण कर केवल ॐ  दुर्गाय नमः का पाठ करना भी शुभ फल देता है।

आप माँ के निम्न मंत्र का जप भी रोज़ १०८ बार कर सकते हैं।

“या देवी सर्वभू‍तेषु माँ शक्ति रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।’ 

नौ देवियों की उत्पत्ति एवं पौराणिक महत्व : 

नवरात्रि के नौ दिनों में माँ के नौ रूपों का पूजन होता है, उनके यह नौ रूप क्रमश: सृष्टि की उत्पत्ति एवं नियम को भी दर्शाते हैं।

प्रथम स्तिथी में माँ के पराशक्ति रूप का विवरण है जो पूरे ब्रह्मांड पर व्याप्त हैं। आदिशक्ति माँ का यह रूप आदि स्वरूपा एवं निराकार है। वह शक्ति का संचार हैं एवं समस्त ब्रह्मांड में हर स्थान एवं हर कण में समायी हुई हैं। जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि रची तो उसमें जीवन की कमी पायी, उन्होंने शिव जी की शरण में जाना उपयुक्त समझा, उनकी उपासना की एवं उनसे मदद माँगी। तब महादेव ने शक्ति की उपासना की एवं माँ परशक्ति का आवहन किया एवं उन्हें सृष्टि में जीवन देने की प्रार्थना की,,, माँ परा शक्ति ने तब शिव जी की बायीं तरफ़ के शरीर में अपना प्रथम अवतार सिद्धिदात्रि  के रूप में लिया। शिव शक्ति का यह स्वरूप सम्पूर्ण जगत में  अर्धनारेश्वर के रूप में प्रचलित हुआ।

इसके पश्चात माँ ने सृष्टि में ऊर्जा के संचार के लिए सूर्य के मध्य में जाकर अपना स्पंदन किया एवं वहाँ  से पूरी सृष्टि को ऊर्जा देने लगी ताकि प्राण का संचार हो सके। माँ का यह रूप माँ कुष्माण्डा  के रूप में प्रचलित हुआ। ब्रह्माण्ड  की सभी वस्तुओं एवं प्राणियों में इन्ही की ऊर्जा एवं तेज़ का वास रहता है।

इसके पश्चात माँ ने दक्ष प्रजापति के घर में पुत्री रूप में अवतरण लिया। माँ इस रूप में शिव की पत्नी सती के रूप में अवतरित हुई। उनके कुँवारे रूप को ब्रह्मचारिणी रूप से पूजा गया।

सती के अग्नि दहन के पश्चात, माँ ने हिमालय पुत्री के रूप में जन्म लिया एवं शैलपुत्री कहलायीं गयी। शैल का मतलब पर्वत होता है, इसी लिए इन्हें शैल पुत्री कहा गया। माँ शैलपुत्री के योवन काल में अत्यंत ग़ौर वर्ण  के कारण महागौरी कहलायी गयीं। इस जन्म में भी उनका विवाह महादेव से हुआ।

माता महा गौरी ने विवाह के पश्चात, शृंगार के रूप में चंद्रमा को अपने माथे में सजाया इसीलिए चंद्रघण्टा रूप में उनका व्याख्यान हुआ।

सृष्टि के निर्माण को आगे बड़ते हुए, महादेव से विवाह के पश्चात माँ ने  कार्तिकेय की माता के रूप में मातृरूप  रूप धारण किया। भगवान कार्तिकेय का दूसरा नाम स्कन्द भी है इसीलिए इस रूप में वह स्कन्दमाता कहलाई गयीं।

यह माना जाता है की सकरात्मक एवं नकारात्मक शक्तियाँ दोनो ही पूर्ण जगत में व्याप्त रहती हैं एवं यान एक प्राणी के अंदर अंतर्द्वंद की तरह भी वास करती हैं एवं जीव के जीवन में या प्रयास लगातार रहता है की इनमे से सकरात्मक शक्तियाँ जागृत रहें एवं नकारात्मक शक्तियों का हनन हो। सृष्टि के इस रूप को चरितार्थ करने के लिए, जब ऋषि कात्यायन ने महिषासुर से परेशान होकर देवी की उपासना की तो देवी ने वरदान स्वरूप उनके यहाँ जन्म लेने का वचन दिया। उन्होंने असुरी शक्ति का नाश करने के लिए कात्यायनी रूप में कात्यान ऋषि की पुत्री के रूप में जन्म लिया एवं महिषासुर का वध किया। इसीलिए इन्हें म कात्यायनी या महिशसुर्मर्दिनी भी कहा जाता है।

माँ ने कालरात्रि रूप में अवतरण शुम्भ  एवं निशुम्भ  राक्षसों का वध करने के लिए। अपनी अधिक क्रोध अवस्था एवं विशालकाय रौद्र रूप में माँ ने अपना ग़ौर वर्ण त्याग कर श्याम वर्ण धारण किया एवं दानवों का नाश किया। इसीलिए माँ कालरात्रि के रूप में प्रचलित हुई। देवी का यह स्वरूप वैसे तो देखने में बहुत भयंकर प्रतीत होता है लेकिन वह अपने भक्तों से बहुत जल्दी प्रसन्न भी हो जाती हैं एवं इसीलिए उन्हें शाकंभरी के नाम से भी जाना जाता है।

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